रोज़गार
सतयुगीन सनातन व्यवस्था में व्यक्ति को 25 वर्षिय ब्रह्मचर्य जीवन में शिक्षण-प्रशिक्षण के बाद जीविकोपार्जन हेतु धन प्राप्ति के लिए गृहस्थ आश्रम प्रशस्त है। रोजगार के लिए संसाधनों की प्राप्ति करके परिवार का भरण-पोषण करना हर परिवार का कर्तव्य है और इस जिम्मेदारी को पूर्ण करने के लिए राष्ट्र के शासन-प्रशासन का महत्वपूर्ण कार्य होता है।
राष्ट्र के शासन-प्रशासन की जिम्मेदारी है कि वह अपने प्रत्येक नागरिक परिवार को उसकी योग्यता के अनुसार रोजगार सुलभ करवाए। सनातन व्यवस्था में में चार सैद्धांतिक कर्म प्रतिष्ठित है। कृषक, वणिक, रक्षक और नायक। इन चारों ही कर्मों के लिए योग्यता अनुसार व्यक्तियों को रोजगार प्राप्त के अवसर प्रदान करना ही राज्य का दायित्व है और यही सनातन धर्म की प्रतिष्ठा भी।
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां
विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।
गीता के इस श्लोक में भी चारों वर्णों को गुणों अनुसार विभक्त करना ही धर्म माना गया है। जबकि वर्तमान परिस्थितियों में हम सनातन के इस प्रमुख कार्य को विलुप्त देखते हैं।
किसी भी मनुष्य में चारों वर्णों अथवा योग्यताओं में से एक वर्ण सदा प्रभावी रहता है, प्रभावी योग्यता अथवा वर्ण ही उसकी उपाधि शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय एवं ब्राह्मण के रूप में निश्चित करता है। इसी योग्यता के आधार पर कर्म के भी चार विभाग निश्चित किये जाते हैं जिसे कृषि, वाणिज्य, राजकीय एवं नेतृत्व कहा गया है। चारों कर्म विभागों के कार्य निर्वहन के लिए लिए चार पद- कृषक, वणिक, सेवक एवं नायक प्रतिष्ठित हैं। सनातन सतयुगीन व्यवस्था शूद्रवर्ण को आजीविका के लिए कृषकपद के निर्वहन हेतु संसाधन के रूप में निःशुल्कभूमि उपलब्ध करता है। वैश्यवर्ण को आजीविका के लिए वणिकपद के निर्वहन हेतु संसाधन के रूप में निर्ब्याजमुद्रा उपलब्ध करता है। क्षत्रियवर्ण को आजीविका के लिए सेवकपद के निर्वहन हेतु संसाधन के रूप में प्रशासनिक सेवा में समानवेतन उपलब्ध करता है। ब्राह्मणवर्ण को आजीविका के लिए नायकपद के निर्वहन हेतु संसाधन के रूप में शासननेतृत्व के लिए नेतृत्वभत्ता उपलब्ध करता है। सनातन सतयुगीन व्यवस्था में चारों वर्णों को क्षमतानुसार पात्रता, पात्रतानुसार कर्म, कर्मानुसार पद, पदानुसार संसाधन वितरण की व्यवस्था को ही वर्णव्यवस्था कहा जाता है।
गुण कौशल पर आधारित व्यवस्था को ही वर्णव्यवस्था कहते हैं। क्षमता, पात्रता, योग्यता, गुणवत्ता अर्थात वरीयताक्रम पर आधारित व्यवस्था ही वर्णव्यवस्था है। वर्णव्यवस्था से ‘मानवता’ उत्पन्न होकर समाज में ‘मंगलराज’ उत्पन्न होता है। यह वर्णव्यवस्था ही मनुष्य को सदगुणी, परिवार को समृद्ध, समाज को सुखी एवं समष्टि को स्वतंत्र बनाती है। यह वर्णव्यवस्था सदैव सार्वभौमिक, सार्वजनिक, सर्वदेशीय, सर्वकालिक, सर्वहितकारी सर्वव्यापी, सत्यात्मक और सर्वसुखदायक होती है। यह वर्णव्यवस्था ही विश्वबंधुत्व, वसुधैवकुटुम्बकम् एवं ब्राह्मण्डमण्डलम उद्धघोष का प्रतिष्ठित करता है। तथा मानव जीवन के समग्र विकास तथा मनुष्य के चारों पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष को प्रतिष्ठित करने में परम सहायक हैं।
सचेतना प्रगति संघ का यही उद्देश्य है कि योग्यता अनुसार कृषक कर्म में कृषक को समुचित कृषि संसाधन उपलब्ध कराए जाएं। वणिक को उसकी योग्यता अनुसार व्यापार और रोजगार के संसाधन की प्राप्ति हो सके। रक्षक वर्ण को उसकी योग्यतानुसार पद व वेतन प्राप्त हो तथा नायक वर्ण को उसकी योग्यतानुसार नेतृत्व पद व नेतृत्वभत्ता की प्राप्ति हो सके। सचेतना प्रगति संघ के उद्देश्यों में आजीविका के अवसर की जानकारी प्रदान करना एक प्रमुख उद्देश्य है ताकि हर परिवार को उसकी योग्यतानुसार रोजगार प्राप्त हो सके और बेरोजगारी सदा के लिए समाप्त हो सके।
राष्ट्र के शासन-प्रशासन की जिम्मेदारी है कि वह अपने प्रत्येक नागरिक परिवार को उसकी योग्यता के अनुसार रोजगार सुलभ करवाए। सनातन व्यवस्था में में चार सैद्धांतिक कर्म प्रतिष्ठित है। कृषक, वणिक, रक्षक और नायक। इन चारों ही कर्मों के लिए योग्यता अनुसार व्यक्तियों को रोजगार प्राप्त के अवसर प्रदान करना ही राज्य का दायित्व है और यही सनातन धर्म की प्रतिष्ठा भी।
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां
विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।
गीता के इस श्लोक में भी चारों वर्णों को गुणों अनुसार विभक्त करना ही धर्म माना गया है। जबकि वर्तमान परिस्थितियों में हम सनातन के इस प्रमुख कार्य को विलुप्त देखते हैं।
किसी भी मनुष्य में चारों वर्णों अथवा योग्यताओं में से एक वर्ण सदा प्रभावी रहता है, प्रभावी योग्यता अथवा वर्ण ही उसकी उपाधि शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय एवं ब्राह्मण के रूप में निश्चित करता है। इसी योग्यता के आधार पर कर्म के भी चार विभाग निश्चित किये जाते हैं जिसे कृषि, वाणिज्य, राजकीय एवं नेतृत्व कहा गया है। चारों कर्म विभागों के कार्य निर्वहन के लिए लिए चार पद- कृषक, वणिक, सेवक एवं नायक प्रतिष्ठित हैं। सनातन सतयुगीन व्यवस्था शूद्रवर्ण को आजीविका के लिए कृषकपद के निर्वहन हेतु संसाधन के रूप में निःशुल्कभूमि उपलब्ध करता है। वैश्यवर्ण को आजीविका के लिए वणिकपद के निर्वहन हेतु संसाधन के रूप में निर्ब्याजमुद्रा उपलब्ध करता है। क्षत्रियवर्ण को आजीविका के लिए सेवकपद के निर्वहन हेतु संसाधन के रूप में प्रशासनिक सेवा में समानवेतन उपलब्ध करता है। ब्राह्मणवर्ण को आजीविका के लिए नायकपद के निर्वहन हेतु संसाधन के रूप में शासननेतृत्व के लिए नेतृत्वभत्ता उपलब्ध करता है। सनातन सतयुगीन व्यवस्था में चारों वर्णों को क्षमतानुसार पात्रता, पात्रतानुसार कर्म, कर्मानुसार पद, पदानुसार संसाधन वितरण की व्यवस्था को ही वर्णव्यवस्था कहा जाता है।
गुण कौशल पर आधारित व्यवस्था को ही वर्णव्यवस्था कहते हैं। क्षमता, पात्रता, योग्यता, गुणवत्ता अर्थात वरीयताक्रम पर आधारित व्यवस्था ही वर्णव्यवस्था है। वर्णव्यवस्था से ‘मानवता’ उत्पन्न होकर समाज में ‘मंगलराज’ उत्पन्न होता है। यह वर्णव्यवस्था ही मनुष्य को सदगुणी, परिवार को समृद्ध, समाज को सुखी एवं समष्टि को स्वतंत्र बनाती है। यह वर्णव्यवस्था सदैव सार्वभौमिक, सार्वजनिक, सर्वदेशीय, सर्वकालिक, सर्वहितकारी सर्वव्यापी, सत्यात्मक और सर्वसुखदायक होती है। यह वर्णव्यवस्था ही विश्वबंधुत्व, वसुधैवकुटुम्बकम् एवं ब्राह्मण्डमण्डलम उद्धघोष का प्रतिष्ठित करता है। तथा मानव जीवन के समग्र विकास तथा मनुष्य के चारों पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष को प्रतिष्ठित करने में परम सहायक हैं।
सचेतना प्रगति संघ का यही उद्देश्य है कि योग्यता अनुसार कृषक कर्म में कृषक को समुचित कृषि संसाधन उपलब्ध कराए जाएं। वणिक को उसकी योग्यता अनुसार व्यापार और रोजगार के संसाधन की प्राप्ति हो सके। रक्षक वर्ण को उसकी योग्यतानुसार पद व वेतन प्राप्त हो तथा नायक वर्ण को उसकी योग्यतानुसार नेतृत्व पद व नेतृत्वभत्ता की प्राप्ति हो सके। सचेतना प्रगति संघ के उद्देश्यों में आजीविका के अवसर की जानकारी प्रदान करना एक प्रमुख उद्देश्य है ताकि हर परिवार को उसकी योग्यतानुसार रोजगार प्राप्त हो सके और बेरोजगारी सदा के लिए समाप्त हो सके।